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डबरा

डबरामध्य प्रदेश

आज भी कुंवारी लड़कियां करती है राक्षस की पहले पूजा फिर अंत, जानिए क्यो

Unmarried girls doing worship

दतिया/ डबरा – बुंदेलखंड और उससे लगे शहरों में शारदीय नवरात्र पर खेले जाने वाले धार्मिक सुआटा (नौरता) की प्राचीन लोक परंपरा धीरे -धीरे लुप्त होती जा रही है। दो दशक पहले तक धार्मिक आस्था से जुड़े इस सुआटा का चलन ग्रामीण क्षेत्र से लेकर शहर भर में था और सभी गली-मोहल्लों में इसकीं भारी धूम रहती थी और बड़े उत्साह से कुँवारी लड़कियां धार्मिक आस्था और लोक कला से जुड़ा यह खेल खूब खेलती थी। लेकिन आज सिर्फ ग्रामीण अंचलों में ही यह लोक परंपरा प्रचलित और जीवित रह गई है।

सुआटा (नौरता) पर सूर्याेदय के अवसर पर बालिकाएं बुंदेली भाषा के गौरा गीत हिमाचल की कुँवरी (गौरा -पार्वती ) लड़ायती है सुअटा, साथ ही सूरज मल के घुल्ला छूटे.., चंद्रामल के घुल्ला छूटे.. गीत गाते हुए आकर्षक रंगोलियां बनाती है। दीवार पर मिट्टी गोबर से सुआटा राक्षस का प्रतीक चित्र अथवा प्रतिमा बनाती है। भोर होते ही बुंदेली गीतों को गाते हुए वह चौक पर आकर्षक चित्र बनाती हैं। सुआटा खेलने का उत्साह शहर के कई इलाकों में कभी शारदीय नवरात्र 9 दिन खूब दिखता था। खासकर दतिया बड़ोनी सेवढ़ा उनाव इंदरगढ़ ग्वालियर जिले के डबरा, आंतरी, पिछोर बिलौआ आदि क्षेत्रों में बालिकाएं रात रात भर जागकर गोबर से चौक लीपती हैं और सोरटा की आकृति और उससे जुड़े चित्र उकेरती हैं। खास बात है इन बालिकाओं में एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा होती हैं किसका सोरटा आकर्षक हैं।

दतिया के साहित्यकार एवं संगीतज्ञ संतोष मिश्रा ने बताया कि पौराणिक गाथाओं के मुताबिक सुअटा एक राक्षस था जो कुँवारी लड़कियों को उठाकर ले जाता था तब उस राक्षस के नाश के लिये कुंवारी लड़कियों ने गौरा माँ का आव्हान किया उनका भाव था कि वे ही उन्हें इस राक्षस के आतंक से मुक्ति दिला सकती है उन्होंने बताया श्राद्ध पक्ष में मामुलिया विसर्जन के दौरान कुँवारी लड़कियां तालाब और खेतों से मिट्टी गाय का गोबर लेकर आती है और नवरात्रि के प्रथम दिन से उससे चोक में सुआटा राक्षस की आकृति और रंगोली बनाती है और यह लोक आस्था का पर्व प्रारंभ होता है जो नौ दिन तक मनाया जाता है नवरात्रि के अंतिम दिन गौरा की पूजा अर्चना के बाद सुअटा राक्षस की बनाई आकृति को वे लड़कियां समूह में मिलकर पैरों से कुचल देती है और कुछ दूरी पर वही आकृति बनाकर फिर से उसे पैरों से रौंद देती है मान्यता है इस तरह सुअटा राक्षस गांव या शहर से दूर होता जाता है जो उस राक्षस के अंत का प्रतीक होता है।

नवमी पर गौरा अर्थात पार्वती माता की पूजा का विशेष आयोजन होता था। सुआटा के साथ ही झिंझिया यानि झांझी और उसके कुंवर साहब , टेसू खिलाने नचाने जैसे प्राचीन लोक कला से जुड़े आयोजन भी होते थे। लेकिन अब यह परंपरा शहरों में कम होकर सिर्फ गांव देहात तक सिमटती जा रही है। आज के आधुनिक युग मे शहरी क्षेत्रों की अधिकांश नई पीढ़ी बुंदेलखंड की इस पुरातन परंपरा से अनजान है।

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